1. मेरे गुरु जी Stories by Prof. Vishwanath Mishra (made during his classes in 1996)

अधिकांश लोगों का जीवन सीधा-सादा होता है। पैदा होते हैं, बड़े होते हैं, शादी-ब्याह होता है, बच्चे होते हैं, बूढ़े होते हैं और मर जाते हैं, पर कुछ लोगों के जीवन में नाटकीय मोड़ आते हैं और ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिससे जीवन की धारा ही बदल जाती है और आदमी कहीं का कहीं पहुँच जाता है। मेरे भारतीय गुरू डा० विश्वनाथ मिश्र का जीवन भी ऐसी ही नाटकीय घटनाओं वाला है। गुरू जी का जन्म जम्मू-कश्मीर के एक गाँव पुरमंडल में हुआ था। उनका बचपन का नाम ज्ञान था। ज्ञान के एक भाई और तीन बहनें थीं। बालक ज्ञान जब चार वर्ष का था, तभी एक घटना घटी। ज्ञान की माँ ने एक कन्या को जन्म दिया और उसके बाद न माँ बची, न कन्या। लोगों ने कहा, उनके घर के पास एक डायन रहती थी जो प्रसूतिकाल में माँ और बच्ची को झाँक कर चली गई। डायन ने उन दोनों का कलेजा निकाल कर खा लिया, जिससे माँ और बेटी दोनों मर गईं।

ज्ञान के पिता जी किसान थे और उनके पास काफी ज़मीन थी। गाय भैंस, बकरी, घोड़ा और कई जानवर भी थे, लेकिन वे कभी-कभी हरिद्वार जाकर रहते थे। ज्ञान की दादी ने ज्ञान के पिताजी से कहा- “यह बालक बहुत चंचल है। डायन का खतरा सिर पर है। तुम इसे अपने साथ हरिद्वार ले जाओ।“ तीन बहनों और दादी की गोद में चढ़ा रहने वाला ज्ञान चार साल की उम्र में अपना गाँव छोड़कर हरिद्वार पहुँच गया। हरिद्वार में उस वर्ष कुम्भ था। कुम्भ हिन्दुओं का एक धार्मिक पर्व है, जिसमें देश भर से लोग आकर रहते और स्नान करते हैं। ज्ञान के चाचा-चाची वाराणसी में रहते थे। चाची कुम्भ के लिए हरिद्वार आकर उसी मकान में रूकीं, जिसमें बालक ज्ञान अपने पिता जी के साथ रहता था। ज्ञान बहुत कुशाग्र बुद्धि था। इतनी छोटी उम्र में ही वह संस्कृत के प्रार्थना श्लोक बोलता था और दुनिया भर की बातें करता था। चाची अकेली थीं। उनके कोई संतान नहीं थी। ज्ञान की चाची से खूब पटती थी। वह दिन भर उनके पास रहता था।

ऋषिकेश मे एक महात्मा रहते थे। ज्ञान के पिताजी उनके भक्त थे। एक दिन वे ज्ञान को लेकर महात्मा जी के पास गए। महात्मा जी बालक को देखकर बहुत खुश हुए। पिताजी ने बालक के भविष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने ज्ञान का हाथ देखकर बताया कि इस बालक के कदम उठ चुके हैं। यह तुम्हारे पास भी नहीं रहेगा। यह पूर्व दिशा की ओर जाएगा और बहुत बड़ा ज्ञानवान बनेगा। पिताजी ख़ुश भी हुए और सहम भी गए, पता नहीं यह बालक कहाँ जाएगा? चाची एक महीना हरिद्वार में रहकर वाराणसी लौट गईं। उन्होंने जाकर चाचा को ज्ञान के बारे में सब बताया और कहा, उसकी माँ नहीं है, क्यों न हम उसको गोद ले लें। चाचा ने ज्ञान के पिता जी को इस आशय का एक पत्र लिखा कि हम लोग ज्ञान को अपना पुत्र बनाना चाहते हैं। पिताजी को महात्मा की बात याद थी। उन्होंने चाचा को उत्तर भेजा कि मुझे स्वीकार है।

चाचा हरिद्वार गए और बालक ज्ञान उनके साथ हँसता – खेलता वाराणसी पहुँच गया और इस प्रकार जम्मू-कश्मीर के आंचल में बसे एक गाँव में पैदा हुआ एक बालक विद्या के केंद्र वाराणसी में नाटकीय अन्दाज़ में पहुँच गया। ज्ञान की वल्दियत बदल गई। अब वह अपने चाचा-चाची का पुत्र था। उसका नाम ज्ञान से विश्वनाथ हो गया। विश्वनाथ की उच्च शिक्षा हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। वहीं हिंदी विभाग में लेक्चरर के रूप में उसकी नियुक्ति हुई और वहीं वे हिन्दी के प्रोफ़ेसर बने। वे अभी भी उस महात्मा की बात को याद करते हैं, “इसकी उन्नति पूर्व दिशा में होगी।” गुरु जी की निगाहें जापान पर लगी हुई हैं, जो सुदूर पूर्व है और जहाँ सूर्य की पहली किरण पड़ती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.